शनिवार, 31 अक्तूबर 2009

प्रेमचंद और सत्यजीत रे को प्रणाम

विलासिता के रंग में डूबा इतिहास का लखनऊ सचमुच वाजिद अली शाह का लखनऊ था । जीवन के प्रत्येक क्षण में आमोद-प्रमोद की प्रधानता थी। साहित्य भी विलासिता के संक्रमण से मुक्त नहीं रहा । ऐसे में महान कथाकार प्रेमचंद ने शतरंज को यथार्थ के चित्रण के लिए मोहरा बनाया। बाद में इसी शतरंज के खिलाड़ी की कहानी को महान फिल्मकार सत्यजीत रे ने अपनी फिल्म के लिए चुना। संजीव कुमार, सईद जाफरी और अमजद खान जैसे व्यावसायिक फिल्मों के नायकों को लेकर रे ने कुछ नया करने की सोची। शतरंज पर बनी यह भारत की सबसे महान फिल्म है और संभवत: अपने किस्म की इकलौती । इस फिल्म और प्रेमचंद की कहानी के आसपास मंडराते सच को जानने-समझने की कोशिश इस आलेख में करना चाहता हँू।



प्रेमचन्द ने ब्रिटिश उपनिवेशवाद के पसरते पैर को आधार बनाया। इस कहानी में उन्होंने शतरंज के घोर संग्राम के सहारे उस परिदृश्य को सार्थक किया जो भारत के तत्कालीन समय में भयावह थी, लेकिन दिखाई नहीं दे रही थी। दरअसल न केवल फिल्में बल्कि साहित्य ने भारत के हृदय के भीतर निरंतर झाँकने की कोशिश की है। उसने समाज को सचेत किया है कि समय और समाज तुम्हारे हाथ से निकलने वाला है। साथ ही यह देश भी। खेल के सहारे और खेल-खेल में देश की नब्ज को नापने की कोशिश भारत का साहित्यकार या फिल्मकार ही कर सकता है। ऐसा प्रेमचंद और सत्यजीत रे ने भी किया।


प्रेमचंद ने शतरंज के खिलाड़ी लिखी तब सत्यजीत रे उतने बड़े नहीं हुए थे। फिल्मकार और कहानीकार का अंतर बड़ा अंतर होता है। कहानी को फिल्माना आसान नहीं है। प्रेमचंद के इस जटिल यथार्थ को गहरे तक संप्रेषित करने वाली कहानी का फिल्मांकन सत्यजीत रे ही कर सकते थे। उन्होंने यह बखूबी किया। अन्यथा प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यास पर बनाई गई कुछ और फिल्मों का हाल तो आप जानते ही हैं। गुलजार के सीरियलों को छोड़ दें तो किसी ने प्रेमचंद के साथ न्याय नहीं किया। शतरंज के बारे में कहा जाता है कि यह बुद्धि को तीव्रता से मांजने का अभ्यास-खेल है। आम आदमी भी चाणक्य की भांति पैदल सेना के साथ हाथी, घोड़े, मंत्री लेकर राजा को नचा सकता है। चाणक्य ने ठीक ही कहा था- जो मजा राजा बनने में है, उससे कहीं अधिक मजा मूर्ख व्यक्ति को राजा बनाकर नचाने में है। यह उक्ति किस्सा कुर्सी का जैसी फिल्मों का हृदय स्पंदन है। बहरहाल आम आदमी अब शतरंज खेलने लगा है। पहले यह खेल राजा-महाराजाओं का था। शतरंज के खिलाड़ी की कथा भी राजा-महाराजाओं के अँगुलियों के सहारे बढ़ती है। इस कहानी को दो पात्र मिर्जा सज्जाद अली और मीर रौशन अली शतरंज के सहारे अपनी बुद्धि तीव्र करने में जुटे रहे। जहाँ राजा से लेकर रंक अपनी धुन में मस्त हैं, वह शहर बाद में अदब को लेकर जिंदा रहा। बात अगर शतरंज की हो तो, शतरंज एकमात्र ऐसा खेल है जिस पर सदियों से लिखा जा रहा है। राजाओं के खेल होने के नाते इसे शाही खेल भी कहते हैं । यह लगभग पाँच हजार वर्ष पुराना है। शतरंज फारसी का शब्द है जो राजा के अर्थ का बोध कराता है। कुछ लोग मानते हैं कि भारत में बौद्धों ने इसका विकास किया। यह युद्ध का विकल्प है। एक समय था जब शतरंज में राजा भी मारा जा सकता था, आज ऐसा संभव नहीं है। पुरातात्विक प्रमाण शतंरज की महत्ता को प्रतिपादित करते हैं। प्राचीन शहर बंट्रिट में शतरंज का मोहरा मिला था। यूरोप के निवासी छठी शताब्दी से शतरंज खेलना जानते थे। बहरहाल, हम बात शतरंज के खिलाड़ी की कर रहे थे। दरअसल शतरंज का इतिहास इस कहानी और फिल्म दोनों से गहरा रिश्ता रखता है। प्रेमचंद की इस कहानी में भारत की उस समय की तसवीर है जब अंग्रेजों की तानाशाही का चरम-पर्व चल रहा था। सत्यजीत रे ने इसी मर्म को कैमरे में कैद करना चाहा। यह फिल्म पस्त पड़ चुके सामंती ढॉंचे की ब्रिटिश उपनिवेशवाद के हाथों पराजित होने की त्रासदी का उद्घाटन करती है। कहानी और फिल्म का अंत अलग-अलग है। इस पर सत्यजीत रे को कोपभाजन का शिकार होना पड़ा था। इस फिल्म की विशेषता यह रही कि इसमें गाँधी के निर्देशक रिचर्ड एटनबरो ने लार्ड डलहौजी की भूमिका निभाई थी। संजीव कुमार और सईद जाफरी शंतरज के मोहरे साधते रहे। वे उन सामंती शासकों के प्रतीक बने जो भारत के राजनैकि सत्ता के हस्तांतरण को अनदेखा कर भोग-विलास में मगन रहे। दरअसल प्रेमचंद का शतरंज भारत का नक्शा था और सेनाएँ, अस्त्र-शस्त्र तथा राजा-वजीर के साथ आत्मसमर्पण करने का दृश्य गढ़ रही थीं- शोले की अपूर्व ख्याति के बाद कोई सोच भी नहीं सकता था कि अमजद खान इस फिल्म के माध्यम से कला के शिखर पर पहँुचेंगे। वैसे शतरंज नाम से एक फिल्म और बनी थी जो शतरंज पर नहीं चालों पर थी ।


सत्यजीत रे स्वयं शतरंज के खिलाड़ी थे। वे इस खेल के व्यसन को गहरे तक जानते थे। इस निजी ज्ञान और अनुभव के कारण वे इस फिल्म को इस स्तर तक उठा पाए। पतनशील सामंतवाद के प्रतिनिधि प्रतीक मीर और मिर्जा की अकर्मण्यता को उन्होंने बड़ी गहराई से उभारा। जो बातें प्रेमचंद ने संकेतो के आधार पर कही, उसे रे ने जीवंत दृश्य दिया। सत्यजीत के लिए फिल्म निर्माण एक मिशन था। इसलिए वे सार्थक सिनेमा को चुनते हैं। रे ने इस फिल्म के लिए अपना अनुभव, ज्ञान, शोध और स्वयं को दाँव पर लगाया था, गोया वे फिल्म नहीं बना रहे, शतरंज खेल रहे थे।


इस फिल्म ने यह जाहिर किया कि अच्छी कलाकृति को माध्यम प्रभावित नहीं कर सकती, वह अपना श्रेष्ठ संप्रेषित कर के ही रहती है। दरअसल यह फिल्म न होकर भारतीय सामंतवाद और ब्रिटिश उपनिवेशवाद के द्वंद्व की गवाही है। यह फिल्म आज भी प्रासंगिक है क्योंकि ग्लोबलाइजेशन की शतरंज में फॅं स चुका भारत आज भी उसी स्थिति को भोग रहा है। राजनेता और अफसर शतरंज खेलने में मशगूल हैं। देश एक बार पुन: उपनिवेशवाद के बाजार का गुलाम हो रहा है। घोड़े और हाथी की जगह स्कार्पियो और महँगी कारें हैं, रानी और वजीर स्वर्ण बाजार में घूम रहे हैं। हॉं शतरंज की पैदल सेनाएँ आज भी पहले मारी जाती हैं और अपने ही भटके लोगों से युद्ध के लिए बेबस हैं। दरअसल शतरंज बार-बार राजनीति और देश की तसवीर बनाता-बिगाड़ता है। ऐसे शतरंज के खिलाड़ी, प्रेमचंद और सत्यजीत रे को प्रणाम जिसने शतरंज के बहाने भारत को गुलामी से मुक्ति दिलाने के लिए मनोरंजन से परे एक नया संसार रचा। द्य द्य (लेखक कल्याण कॉलेज, भिलाई में हिंदी के सहायक प्राध्यापक एवं अंतरराष्ट्रीय ख्याति के साहित्यधर्मी हैं। मो. 9425358748)


बुधवार, 18 जून 2008

सांस्कृतिक छत्तीसगढ़ के निर्माता थे सप्रेजी

रायपुर. छत्तीसगढ़ के प्रथम पत्रकार मूर्धन्य साहित्यकार तथा प्रखर देशभक्त पं.माधवराव सप्रेजी की 138 वीं जयंती के अवसर पर महाराष्ट्र मंडल तथा पं. माधवराव सप्रे साहित्य शोध केंद्र, रायपुर द्वारा संयुक्त रूप से शोध संगोष्ठी एवं जयंती समारोह का आयोजन महाराष्ट्र मंडल, चौबे कालोनी के संत ज्ञानेश्वर सभागृह में किया गया । दो सत्रों में आयोजित इस समारोह में 25 से अधिक शोधपत्र प्रस्तुत किये गये । विशिष्ट वक्ताओं ने सप्रे जी को पत्रकारिता और साहित्य का अमूल्य धरोहर बताते हुए सप्रे साहित्य के पुनर्प्रकाशन को ही पुण्य स्मरण बताया ।

मुख्य वक्ता श्री कनक तिवारी ने इस अवसर पर कहा कि सप्रेजी ने छत्तीसगढ़ मित्र को पत्रकारिता का इतिहास बना दिया है । सौ साल पहले वे सांस्कृतिक छत्तीसगढ़ की कल्पना करते थे और बाद में यही छत्तीसगढ़ भौगोलिक रूप से बना । उनका साहित्य आम लोगों के लिए भी उपयोगी था । श्री तिवारी ने कहा कि भौतिक रूप से स्मरण करना उचित नही है, वैचारिक रूप से कुछ करने की आवश्यकता है । महापुरुषों के लिए समाज को सोचना और करना होगा न कि उनके परिवारों को । आज समाज हमारे महापुरुषों को भी जाति एवं वर्ग में बाँट रही है जो चिंतनीय है जो चिंतनीय है । श्री रमेश नैयर ने कहा कि सप्रेजी मूलतः पत्रकार थे और उनकी पत्रकारिता समाज सापेक्ष थी। श्री संजय द्विवेदी ने कहा कि सप्रे जी सभी विधाओं में लिखा और उनकी हिंदी भारतेंदु की परंपरा के समकक्ष थी । भारतेंदु और महावीर प्रसाद द्विवेदी ने जो कार्य हिंदी के लिए किया है लगभग वैसा ही कार्य सप्रे जी का है ।
श्री गिरीश पंकज ने कहा कि जो नैतिक ईमानदारी सप्रेजी में थी आज की पत्रकारिता में दिखाई नहीं देती । आज साहित्य भी राह से भटक गया है । पत्रकारिता मिशन न होकर कमीशन हो गई है । श्री बसंत तिवारी ने कहा कि मैंने सप्रे को विशुद्ध रूप से पत्रकार के नजरिये से देखा है । कितने कष्टों को झेलकर उन्होंने छत्तीसगढ़ मित्र का प्रकाशन किया रहा होगा । तब पत्रकारिता विज्ञापन के मायाजाल से मुक्त थी । वरिष्ठ पत्रकार रमाशंकर अग्निहोत्री ने भी पत्रकारिता और साहित्य के संगम की वकालत की । श्री सच्चिदानंद उपासने ने कहा कि पत्रकारिता को समाज के लिए उत्तरदायी रहना चाहिए । समारोह के अध्यक्ष कुलपति श्री सच्चिदानंद जोशी ने अध्यक्षीय उद्बोधन में संगोष्ठी को सार्थक बताते हुए कहा कि सप्रेजी साहित्य एवं पत्रकारिता के नींव के पत्थर हैं और वे अपनी कृतियों के माध्यम से युगों तक जीवित रहेंगे । प्रारंभ में डॉ. अशोक सप्रे ने केंद्र की गतिविधियों की जानकारी दी । इस अवसर पर सुधीर शर्मा द्वारा संपादित पत्रिका साहि्त्य वैभव के सप्रे अंक का तथा रजा हैदरी द्वारा संपादित पत्रिका श्लोक के फिराक गोरखपुरी अंक का लोकार्पण किया गया । सप्रे केंद्र एवं महाराष्ट्र मंडल द्वारा स्थापित प्रथम पं. माधवराव सप्रे साहित्य एवं पत्रकारिता सम्मान डॉ. देवी प्रसाद वर्मा बच्चू जाँजगिरी को दिया गया ।

प्रातः प्रथम सत्र में छत्तीसगढ़ के अनेक स्थानो आए प्राध्यापकों एवं शोधछात्रों ने अपने शोधपत्र प्रस्तुत किये । इस सत्र की अध्यक्षता डॉ. विमल कुमार पाठक ने की तथा डॉ. रामकुमार बेहार, ध्रुवनारायण अग्रवाल, एवं रामकुमार शर्मा विशिष्ट वक्ता थे । डॉ. शैल शर्मा एवं रेणु सक्सेना ने संचालन किया । पद्मश्री महादेव पांडेय, रवि श्रीवास्तव, अशोक सिंघई, हरिशंकर शुक्ल, जयप्रकाश मानस, जे.आर.सोनी, राजेन्द्र सोनी, एच.एस.ठाकुर, छंदा बेनर्जी, राकेश तिवारी, अखिलेश तिवारी, प्रीतिबाला तिवारी, प्रीतिबाला चंद्राकर, प्रो. चौधरी, अनंतधर शर्मा, मंजू ठाकुर सहित बड़ी संख्या में विद्वान उपस्थित थे । महाराष्ट्र मंडल के सचिव आशीष पंडित ने आभार एवं मुख्य सत्र का संचालन सप्रे शोध केंद्र के सचिव डॉ. सुधीर शर्मा ने किया ।

नामवरी आलोचना का मोहताज नहीं नहीं हिंदी ब्लॉग

जयप्रकाश मानस के आलेख पर टीप
नामवरी आलोचना का मोहताज नहीं नहीं हिंदी ब्लॉग

नामवर जी आदरणीय हैं । हिदी आलोचना उनकी एहसानमंद है । परंतु वे अब दादाजी हो गई हैं । दादाजी घर में ही ज्यादा रहते हैं । बच्चों को अतीत की गौरव-गाथा सुनाते हैं । नई पीढ़ी को भटकी हुई पीढ़ी कहते हैं।

नामवर आलोचना के स्वयं के बनाये चक्रव्यूह से आसानी से नहीं निकल सकते । वे तो इस सदी में उतना भी नहीं सोच रहे हैं, जितना 100 साल पहले पं.माधवराव सप्रे सोचते थे । ब्लॉग आज की दुनिया का डायरी लेखन है, निजी संस्मरणों या विचारों की डायरी मात्र नहीं । दुनिया में परस्पर संवाद, संपादक की बेईमानी, प्रकाशकों की तानाशाही और पाठकों की लापरवाही से अलग । इस दुनिया में नामवर की क्या आवश्यकता है ? नामवरजी प्रणम्य हैं । उन्हें प्रणाम करते रहें । अपना ब्लॉग लिखते रहें । नामवरी मायानगरी और सेंसरबोर्ड के प्रपंचों से दूर । दादाजी आपकी ऊँगली के बजाय बच्चों ने की-बोर्ड पकड़ लिया है । निकल पड़े हैं दुनिया की सैर पर.....

शनिवार, 14 जून 2008

भाषाएं नहीं होती हैं साम्प्रदायिक


पं. नंदकिशोर शुक्ल और संजय द्विवेदी के बहाने अपनी मातृभाषा छत्तीसगढ़ी के साथ-साथ विश्व की आधार भाषा संस्कृत का गौरव-गान करने का सौभाग्य मिल रहा है। भाषा की महत्ता और उसकी अस्मिता से दूर केवल बोलचाल तक सिमट रहे जनमानस को जगाने के लिए यह बहस सार्थक साबित हो रही है। अनेक विद्वानों ने संस्कृत और छत्तीसगढ़ी की महत्ता विभिन्न संदर्भों और अनुभवों के माध्यम से प्रतिपादित की है। बहस एक-दूसरे को काटने के बजाय एक-दूसरे के विचारों को आगे बढ़ाने में क्रियाशील है।बहस के केंद्र में छत्तीसगढी क़े लिए मर-मिटने के लिए बुढ़ापे में निकले पं. नंदकिशोर शुक्ल हैं। श्री शुक्ल का यह कथन कि संस्कृत के बजाय छत्तीसगढ़ी को प्राथमिक स्तर से पाठयक्रम में शामिल करना निश्चित ही विवाद का विषय है, और कोई भी भाषावैज्ञानिक इससे पूरी तरह सहमत नहीं हो सकता। हमें बजाय शब्द पर आपत्ति है। श्री शुक्ल ने अपनी भाषा एवं अस्मिता के लिए विभिन्न मोर्चों पर सतत संघर्षरत विद्वानों को एकजुट करने का सराहनीय कार्य किया था। यह भी सच है कि छत्तीसगढ़ी को राजभाषा बनाए जाने के निर्णय के आसपास वे पूरी तरह निष्ठा के साथ मौजूद थे। उनके साथ इस आंदोलन में उनके तेवर और सत्ताधीशों के साथ तू-तू, मैं-मैं से हम वाकिफ हैं। दरअसल श्री शुक्ल छत्तीसगढ़ी और छत्तीसगढ़ के अस्मिता को लेकर गुस्सा भी जाते हैं और इसी उतावलापन या अतिउत्साह से वे संस्कृत के बारे में टिप्पणी कर चुके होंगे। बहरहाल इस बहस के बहाने कुछ ठोस बिन्दुओं पर बातचीत जारी रखें।संस्कृत की विश्वव्यापी महत्ता आज से नहीं हजारों-हजार वर्षों से है। विश्व के अधुनातन देशों ने भी प्रारंभ से संस्कृत की महत्ता को स्वीकार किया है। दरअसल पश्चिमी भाषा वैज्ञानिक संस्कृत के व्याकरणिक ढांचे को लेकर ही अपनी भाषा का अध्ययन कर पाते हैं। पाणिनि, यास्क, कात्यायन, पंतजलि, आनंदवर्धन, भर्तृहरि, भाष्य जैसे अनेक व्याकरणार्च और विभिन्न शास्त्रों के ज्ञाताओं ने सैकड़ों वर्ष पूर्व जिन सिध्दांतों का प्रतिपादन किया था, आज भी उन्हीं सिध्दांतों के सहारे ही भाषावैज्ञानिक अध्ययन कर रहे हैं। ब्लूमफील्ड, सस्यूर, नॉम चॉमस्की जैसे अनेक पश्चिमी विद्वानों का अध्ययन भी संस्कृत के इन महान आचार्यों के सामने बौना दिखाई देता है। वे कहीं न कहीं उनसे प्रेरित या उनकी छाया में गुम दिखाई देते हैं। देरिदा भी नागार्जुन, शंकराचार्य और अरविंद से प्रभावित लगते हैं। संस्कृत दरअसल प्रयोग में न आने के बावजूद समूचे विश्व की भाषा है। संस्कृत भाषा विश्व परिवार एवं सार्वजनीन भ्रातृभाव की जननी है। शंकराचार्य और रामानुजाचार्य ने अपनी पूरी शक्ति इसके उत्थान के लिए लगा दी थी। चीन की बड़ी दीवार पर संस्कृत के धर्मसूत्र अंकित हैं। मध्य एशिया में अनेक स्थलों पर संस्कृत-ग्रंथों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। भाषा विज्ञान ने संस्कृत को मानव जाति की प्राचीनतम भाषा माना है। मैक्समूलर ने आंतरिक शांति के उद्देश्य से रचित साहित्य को संस्कृत भाषा का साहित्य माना है। वास्तव में संस्कृत हमारी संस्कृति का मूलाधार है। इसके साहित्य में देश की आत्मा बसी है। ऐसी कोई विधा नहीं जो संस्कृत साहित्य में पूरी तार्किकता के साथ मौजूद नहीं, ऐसा कोई ज्ञान-क्षेत्र नहीं जो अपने मौलिक सिध्दांत के साथ उपस्थित न हो।बात संस्कृत को प्राथमिक स्तर पर पढ़ाए जाने के संबंध में की जा रही है, तब इस बात की भी चिंता करनी चाहिए कि प्राथमिक स्तर पर पढ़ाई किस पध्दति से हो रही है और वर्तमान मानसिकता किस ओर है। समूचा भारत और अब एशिया के अनेक देश भी अंग्रेजी की ओर मुंह ताक रहे हैं। ग्लोबलाइजेशन ने इसे और मजबूत कर दिया है। विश्व बाजार में अपना वर्चस्व बनाने अंग्रेजी के सहारे की जरूरत दिखाई देती है। दूसरी ओर इस बाजार के दादाओं की ओर देखें तो उन्हें लगता है कि बिना देशीय या क्षेत्रीय भाषाओं के उनके उत्पाद और उसके साथ विचार गांवों तक नहीं पहुंच सकते हैं। प्राथमिक स्तर पर अंग्रेजी अब अनिवार्य हो चुकी है। संस्कृत का अध्यापन कराने से एक लाभ जरूर होगा कि हम भाषा की शुध्दता एवं उसके आधार को आत्मसात कर सकेंगे। परंतु संस्कृत का पाठ गंभीरता से न होकर बचकाना और महज औपचारिकता के लिए कराया गया तो और भी अनर्थ होगा। हो यही रहा है। अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों में संस्कृत और हिंदी को मजाक की तरह पढ़ाया जा रहा है। हम स्वयं अपनी भाषा के प्रति सचेत नहीं है। अशुध्द अंग्रेजी बोलने से भयभीत रहते हैं और दिनभर अशुध्द हिंदी का प्रयोग कर जी रहे हैं। इसलिए संस्कृत को पूरी गंभीरता और योजनाबध्द ढंग से अध्ययन के लिए लागू करना चाहिए।संस्कृत से अलग मातृभाषा के अध्यापन की बात करें तो केंद्र सरकार ने पहले ही फरमान जारी किया हुआ है कि प्राथमिक स्तर की शिक्षा का माध्यम मातृभाषाएं हों। अनेक राज्यों में ऐसा हो भी रहा है। छत्तीसगढ़ में भी अनेक बोलियों के लिए पाठयक्रम तैयार किए गए हैं। लेकिन छत्तीसगढ़ी को बार-बार छोड़ना किस मानसिकता की ओर इशारा करता है। दरअसल छत्तीसगढ़ राज्य की स्थापना से जो भय का वातावरण राज्य बनने से पहले था, लगभग वही वातावरण छत्तीसगढ़ी को लेकर है। यह सत्य ही है कि मातृभाषाएं मनुष्य को दिल से जोड़ती हैं। बिखरा हुआ समाज अपनी मातृभाषा की मिठास पाकर एकजुट हो जाता है। यह एकजुटता क्षेत्रीय अस्मिता की सबसे बड़ी पूंजी है। इसी ताकत का अपने अधिकारों की रक्षा के लिए प्रयोग किया जाता है। छत्तीसगढ़ राज्य की सशक्त वैचारिक आंदोलन के पीछे भी मैं छत्तीसगढ़ी की ताकत को खड़ा पाता हूं। यही ताकत क्षेत्रीय अस्मिता को देश के दूसरे राज्यों की तरह दूसरी ओर न धकेल दे यही चिंता अनेक लोगों की है। दूसरी ओर बिना छत्तीसगढ़ी के छत्तीसगढ़ में न तो सत्ता पाई जा सकती है, न व्यापार किया जा सकता है और तो और छत्तीसगढ़ियों का शोषण भी नहीं किया जा सकता। अंग्रेजों ने संस्कृत, हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को सीखने और उस पर वृहद अध्ययन करने का कार्य यूं ही नहीं किया था। भारत में इकलौता वृहद भाषा-सर्वेक्षण का कार्य उन्होंने ही तो अपने निहित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया था। उसी अध्ययन से हीरालाल काव्योपाध्याय का छत्तीसगढ़ी व्याकरण उपजा है, जिस पर आज हम गर्व करते हैं। जिन लोगों ने छत्तीसगढ़ी के साथ-साथ छत्तीसगढ़ी को आत्मसात किया है वे सुखी हैं। इसके विपरीत जो लोग अपनी भाषा-अपनी अस्मिता के दीप को प्रावलित रखना जरूरी समङाते हैं, वे गैर छत्तीसगढ़िया कहलाने का दुख भी ङोल रहे हैं। यह बहस बहुत लंबी हो सकती है, लेकिन निष्कर्ष यही निकलता है कि भाषाएं साम्प्रदायिक नहीं होती। एक-दूसरे की भाषा और संस्कृति की रक्षा करना और उसका सम्मान करना हमारी मानवीय आवश्यकता है।