विलासिता के रंग में डूबा इतिहास का लखनऊ सचमुच वाजिद अली शाह का लखनऊ था । जीवन के प्रत्येक क्षण में आमोद-प्रमोद की प्रधानता थी। साहित्य भी विलासिता के संक्रमण से मुक्त नहीं रहा । ऐसे में महान कथाकार प्रेमचंद ने शतरंज को यथार्थ के चित्रण के लिए मोहरा बनाया। बाद में इसी शतरंज के खिलाड़ी की कहानी को महान फिल्मकार सत्यजीत रे ने अपनी फिल्म के लिए चुना। संजीव कुमार, सईद जाफरी और अमजद खान जैसे व्यावसायिक फिल्मों के नायकों को लेकर रे ने कुछ नया करने की सोची। शतरंज पर बनी यह भारत की सबसे महान फिल्म है और संभवत: अपने किस्म की इकलौती । इस फिल्म और प्रेमचंद की कहानी के आसपास मंडराते सच को जानने-समझने की कोशिश इस आलेख में करना चाहता हँू।
प्रेमचन्द ने ब्रिटिश उपनिवेशवाद के पसरते पैर को आधार बनाया। इस कहानी में उन्होंने शतरंज के घोर संग्राम के सहारे उस परिदृश्य को सार्थक किया जो भारत के तत्कालीन समय में भयावह थी, लेकिन दिखाई नहीं दे रही थी। दरअसल न केवल फिल्में बल्कि साहित्य ने भारत के हृदय के भीतर निरंतर झाँकने की कोशिश की है। उसने समाज को सचेत किया है कि समय और समाज तुम्हारे हाथ से निकलने वाला है। साथ ही यह देश भी। खेल के सहारे और खेल-खेल में देश की नब्ज को नापने की कोशिश भारत का साहित्यकार या फिल्मकार ही कर सकता है। ऐसा प्रेमचंद और सत्यजीत रे ने भी किया।
प्रेमचंद ने शतरंज के खिलाड़ी लिखी तब सत्यजीत रे उतने बड़े नहीं हुए थे। फिल्मकार और कहानीकार का अंतर बड़ा अंतर होता है। कहानी को फिल्माना आसान नहीं है। प्रेमचंद के इस जटिल यथार्थ को गहरे तक संप्रेषित करने वाली कहानी का फिल्मांकन सत्यजीत रे ही कर सकते थे। उन्होंने यह बखूबी किया। अन्यथा प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यास पर बनाई गई कुछ और फिल्मों का हाल तो आप जानते ही हैं। गुलजार के सीरियलों को छोड़ दें तो किसी ने प्रेमचंद के साथ न्याय नहीं किया। शतरंज के बारे में कहा जाता है कि यह बुद्धि को तीव्रता से मांजने का अभ्यास-खेल है। आम आदमी भी चाणक्य की भांति पैदल सेना के साथ हाथी, घोड़े, मंत्री लेकर राजा को नचा सकता है। चाणक्य ने ठीक ही कहा था- जो मजा राजा बनने में है, उससे कहीं अधिक मजा मूर्ख व्यक्ति को राजा बनाकर नचाने में है। यह उक्ति किस्सा कुर्सी का जैसी फिल्मों का हृदय स्पंदन है। बहरहाल आम आदमी अब शतरंज खेलने लगा है। पहले यह खेल राजा-महाराजाओं का था। शतरंज के खिलाड़ी की कथा भी राजा-महाराजाओं के अँगुलियों के सहारे बढ़ती है। इस कहानी को दो पात्र मिर्जा सज्जाद अली और मीर रौशन अली शतरंज के सहारे अपनी बुद्धि तीव्र करने में जुटे रहे। जहाँ राजा से लेकर रंक अपनी धुन में मस्त हैं, वह शहर बाद में अदब को लेकर जिंदा रहा। बात अगर शतरंज की हो तो, शतरंज एकमात्र ऐसा खेल है जिस पर सदियों से लिखा जा रहा है। राजाओं के खेल होने के नाते इसे शाही खेल भी कहते हैं । यह लगभग पाँच हजार वर्ष पुराना है। शतरंज फारसी का शब्द है जो राजा के अर्थ का बोध कराता है। कुछ लोग मानते हैं कि भारत में बौद्धों ने इसका विकास किया। यह युद्ध का विकल्प है। एक समय था जब शतरंज में राजा भी मारा जा सकता था, आज ऐसा संभव नहीं है। पुरातात्विक प्रमाण शतंरज की महत्ता को प्रतिपादित करते हैं। प्राचीन शहर बंट्रिट में शतरंज का मोहरा मिला था। यूरोप के निवासी छठी शताब्दी से शतरंज खेलना जानते थे। बहरहाल, हम बात शतरंज के खिलाड़ी की कर रहे थे। दरअसल शतरंज का इतिहास इस कहानी और फिल्म दोनों से गहरा रिश्ता रखता है। प्रेमचंद की इस कहानी में भारत की उस समय की तसवीर है जब अंग्रेजों की तानाशाही का चरम-पर्व चल रहा था। सत्यजीत रे ने इसी मर्म को कैमरे में कैद करना चाहा। यह फिल्म पस्त पड़ चुके सामंती ढॉंचे की ब्रिटिश उपनिवेशवाद के हाथों पराजित होने की त्रासदी का उद्घाटन करती है। कहानी और फिल्म का अंत अलग-अलग है। इस पर सत्यजीत रे को कोपभाजन का शिकार होना पड़ा था। इस फिल्म की विशेषता यह रही कि इसमें गाँधी के निर्देशक रिचर्ड एटनबरो ने लार्ड डलहौजी की भूमिका निभाई थी। संजीव कुमार और सईद जाफरी शंतरज के मोहरे साधते रहे। वे उन सामंती शासकों के प्रतीक बने जो भारत के राजनैकि सत्ता के हस्तांतरण को अनदेखा कर भोग-विलास में मगन रहे। दरअसल प्रेमचंद का शतरंज भारत का नक्शा था और सेनाएँ, अस्त्र-शस्त्र तथा राजा-वजीर के साथ आत्मसमर्पण करने का दृश्य गढ़ रही थीं- शोले की अपूर्व ख्याति के बाद कोई सोच भी नहीं सकता था कि अमजद खान इस फिल्म के माध्यम से कला के शिखर पर पहँुचेंगे। वैसे शतरंज नाम से एक फिल्म और बनी थी जो शतरंज पर नहीं चालों पर थी ।
सत्यजीत रे स्वयं शतरंज के खिलाड़ी थे। वे इस खेल के व्यसन को गहरे तक जानते थे। इस निजी ज्ञान और अनुभव के कारण वे इस फिल्म को इस स्तर तक उठा पाए। पतनशील सामंतवाद के प्रतिनिधि प्रतीक मीर और मिर्जा की अकर्मण्यता को उन्होंने बड़ी गहराई से उभारा। जो बातें प्रेमचंद ने संकेतो के आधार पर कही, उसे रे ने जीवंत दृश्य दिया। सत्यजीत के लिए फिल्म निर्माण एक मिशन था। इसलिए वे सार्थक सिनेमा को चुनते हैं। रे ने इस फिल्म के लिए अपना अनुभव, ज्ञान, शोध और स्वयं को दाँव पर लगाया था, गोया वे फिल्म नहीं बना रहे, शतरंज खेल रहे थे।
इस फिल्म ने यह जाहिर किया कि अच्छी कलाकृति को माध्यम प्रभावित नहीं कर सकती, वह अपना श्रेष्ठ संप्रेषित कर के ही रहती है। दरअसल यह फिल्म न होकर भारतीय सामंतवाद और ब्रिटिश उपनिवेशवाद के द्वंद्व की गवाही है। यह फिल्म आज भी प्रासंगिक है क्योंकि ग्लोबलाइजेशन की शतरंज में फॅं स चुका भारत आज भी उसी स्थिति को भोग रहा है। राजनेता और अफसर शतरंज खेलने में मशगूल हैं। देश एक बार पुन: उपनिवेशवाद के बाजार का गुलाम हो रहा है। घोड़े और हाथी की जगह स्कार्पियो और महँगी कारें हैं, रानी और वजीर स्वर्ण बाजार में घूम रहे हैं। हॉं शतरंज की पैदल सेनाएँ आज भी पहले मारी जाती हैं और अपने ही भटके लोगों से युद्ध के लिए बेबस हैं। दरअसल शतरंज बार-बार राजनीति और देश की तसवीर बनाता-बिगाड़ता है। ऐसे शतरंज के खिलाड़ी, प्रेमचंद और सत्यजीत रे को प्रणाम जिसने शतरंज के बहाने भारत को गुलामी से मुक्ति दिलाने के लिए मनोरंजन से परे एक नया संसार रचा। द्य द्य (लेखक कल्याण कॉलेज, भिलाई में हिंदी के सहायक प्राध्यापक एवं अंतरराष्ट्रीय ख्याति के साहित्यधर्मी हैं। मो. 9425358748)
शनिवार, 31 अक्तूबर 2009
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